मद्रास हाईकोर्ट ने साधगुरु जग्गी वासुदेव से पूछा: महिलाओं को सन्यास की राह क्यों दिखा रहे, जब अपनी बेटी का विवाह कर दिया?

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मद्रास हाईकोर्ट ने साधगुरु जग्गी वासुदेव से पूछा: महिलाओं को सन्यास की राह क्यों दिखा रहे, जब अपनी बेटी का विवाह कर दिया?

मद्रास हाईकोर्ट ने साधगुरु जग्गी वासुदेव से पूछा: महिलाओं को सन्यास की राह क्यों दिखा रहे, जब अपनी बेटी का विवाह कर दिया?

  • सुशीला गोस्वामी
  • 1 जून 2025
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ईशा फाउंडेशन में दो महिलाओं के ठहरने पर हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी

सोचिए, जब एक मशहूर आध्यात्मिक गुरु अपनी बेटी को तो पारिवारिक जीवन के लिए प्रेरित करें, लेकिन बाकी महिलाओं से कहें कि वे गृहस्थी छोड़ दें—क्या ये सही है? मद्रास हाईकोर्ट ने साधगुरु जग्गी वासुदेव को इसी सवाल की कटघरे में खड़ा कर दिया। हाल ही में पेश हुए एक मामले में, अदालत ने पूछा कि जब उनकी खुद की बेटी राधे जग्गी शादीशुदा और आराम से जीवन बिता रही हैं, तो साधगुरु दूसरों की बेटियों को सिर मुंडवा कर सन्यास लेने की प्रेरणा क्यों दे रहे हैं?

मामला ईशा फाउंडेशन में दो बहनों के रहने का है। इनकी उम्र 42 और 39 साल है। इनकी पिता एस. कामराज, जो खुद रिटायर्ड प्रोफेसर हैं, ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उनका आरोप है कि उनकी बेटियों को ‘ब्रेनवॉश’ कर ईशा फाउंडेशन में रखा गया है। लेकिन जब दोनों बहनों से पूछा गया, तो उन्होंने साफ कहा कि वे वहां अपनी मर्जी से रह रही हैं, किसी तरह की जबरदस्ती या दबाव नहीं है।

अदालत ने मांगी पूरी रिपोर्ट, उठाया गया संस्थान की भूमिका पर सवाल

कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार से ईशा फाउंडेशन के खिलाफ दर्ज सभी आपराधिक मामलों की जानकारी तलब की है। इससे ये साफ है कि अब संस्था पर बहुत गहराई से जांच होने वाली है। सुनवाई के दौरान अदालत की बेंच ने समाज में दोहरे मापदंडों को उजागर किया—उन्होंने सवाल उठाया, अगर गुरु के अपने परिवार में बेटी की शादी व्यवस्थित तरीके से हो सकती है, तो दूसरों की बेटियों को सांसारिक सुख छोड़ने की सलाह क्यों?

यह मुद्दा अचानक सुर्खियों में नहीं आया। पिछले कुछ समय से आध्यात्मिक संस्थानों द्वारा 'त्याग' या 'सन्यास' के नाम पर महिलाओं को प्रभावित किए जाने की खबरें चर्चा में रही हैं। खासकर तब, जब परिजन दावा करते हैं कि ये संस्थाएं युवाओं या महिलाओं को अपने परिवार से दूर कर रही हैं और उनसे कोई रिश्ता नहीं रखने देतीं। फिर भी, दूसरी ओर, संस्था में रहने वाले अकसर कहते हैं कि यह उनका व्यक्तिगत और स्वतंत्र निर्णय है।

इसके साथ ही, अदालत ने यह भी साफ कर दिया कि हर किसी को अपनी जिंदगी जीने की आज़ादी है, लेकिन अगर संस्था के भीतर अवैध गतिविधियां या दबाव की पुष्टि होती है, तो सख्त कार्रवाई की जाएगी। अब देखने की बात यह है कि क्या अदालत की यह सख्ती संस्थाओं की कार्यशैली को बदलने में कोई असर डालेगी या भारतीय समाज में सन्यास बनाम गृहस्थी की बहस और तेज होगी।

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सुशीला गोस्वामी

सुशीला गोस्वामी

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मैं एक न्यूज विशेषज्ञ हूँ और मैं दैनिक समाचार भारत के बारे में लिखना पसंद करती हूँ। मेरे लेखन में सत्यता और ताजगी को प्रमुखता मिलती है। जनता को महत्वपूर्ण जानकारी देने का मेरा प्रयास रहता है।

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